जूही कमल गुलाब केतकी सी
पायी तूने सुन्दर काया
भवरें जिस पर मंडराया करते
त्राहि त्राहि करती तेरी काया !!
उन भवरों का भला सोचती
निर्भीक हो तन चुसने से
यह नाजुक पंखुड़िया
कैसे सह पाएंगी
इन कपटी भवरों
के गुंजन को !!
प्रतिदिन नवें सूरज में
तू उगती है
फिर सृष्टि का पालन करती है
करोडो जीवो को मृत कर देती है
फिर भी पाप पुण्य से मुक्त
तू रहती है !!
ठंडी पवन और वर्षा के
गीतो में जब तू अपनी
कमर थिरकाती है
मोरनी सी तुझ सुन्दर बाला पर
प्रकृति भी न्योछावर
हो जाती है !!
गंगा जल सी पवित्र है तू
फिर क्यों अपने को पापी
ठहराती है
ए गीता की शपथ लेने वालो
क्या गीता भी कभी झूठी कहलाती है !!
मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारे
सभी तेरी प्रतिभूतियां है
फिर पूजा पाठ से तुझे क्या करना है
जब देह में ही तेरी शिवालय बना है !!
जब इन तरसती बाहों से तेरा
आलिंगन करना चाहता हूँ
कोमलता को देख कर तेरी
निर्भुज सा हो जाता हूँ !!
इन्द्रधनुष के इन सात रंगो की
बनायी जो मैंने
ये सुन्दर सुशोभित माला है
धारण करके जब तू इसको निकलेगी
मेरी स्मृतियाँ तुझमे यूं झलकेंगी
फिर याद तुझे मैं आऊंगा
आंसू बनकर तेरी आँखों में
धरती पर गिर जाऊँगा !!
पता नहीं अब मैं मिटने सा लगा हूँ
अपने ही अस्तित्व में यूं खोने सा लगा हुँ
इस दुनिया से जब
मै मिट जाऊंगा
ढूंढ लेना ऐ दुनिया वालो
तुम्हे सिर्फ उसकी आँखों
में नज़र आऊंगा !!
तुम्हे सिर्फ उसकी आँखों
में नज़र आऊंगा !!
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Wow
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