१ अंधकार ही अंधकार माँ
अंधकार में झुलस रहा मैं
माँ तेरी अंतस की गर्मी में
उजियारे को तरस रहा मैं !!
२ प्रचण्ड वेदनाओ को सहकर
तूने मुझे प्रकाश दिया
फिर अर्घ चढ़ाऊँ क्यों सूरज को
जब तूने मुझे प्रकाश दिया !!
३ मैं तुझको अर्घ चढ़ाऊंगा
तेरे ही गुण गाऊंगा
वेदना के बदले में
तेरे ममता भरे प्यार को
जन्मो जन्मों न भुला पाऊंगा !!
४ भूख प्यास से व्याकुल मैंने
जब तेरे अंतस में रुदन किया
तीखे अन्न को तजकर तूने
माँ मुझको पोषित तृप्त किया !!
५ माँ तेरे दिल की धड़कन
मेरे कानो में आकर कहती थी
कि मेरी एक झलक पाने को तू
कैसे तरसा करती थी !!
६ तमसो माँ ज्योतिर्गमय का
जब तेरे अंतस में,
मैंने पठन किया
न चाहकर भी माँ तूने मुझको
अपनी देह से पृथक किया!!
७ माँ तेरी इस पीड़ा को
मैं जड़ कैसे समझ पाऊंगा
अपने इन तुच्छ शब्दों से
कह कैसे बयां कर पाऊंगा !!
८ माँ तुझसे अब पृथक होकर जाना
यह दुनिया छल कपट भरी माया है
इसके झूठे उजियारे से तो
तेरे अंतस में तम का साया है !!
९ ज्योतिर् माँ तमसोगमय का
अब पठन मैं करता हूँ
तेरे अंतस में फिर से आश्रय पाने का
मीठा ख्वाब मैं रखता हूँ !!
I need to add more stanza in this poem, This is incomplete.
ReplyDeleteLast stanza in which child wished to come again in the womb of mother, is so painful for both. They need to take rid from all sufferings of this circle.
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